संस्कृत गद्यांश का संदर्भ-सहित अनुवाद In-context translation of Sanskrit passage


संस्कृत गद्यांश का संदर्भ-सहित अनुवाद In-context translation of Sanskrit passage

शुरुआत से अंत तक जरूर पढ़े। In-context translation of Sanskrit passage

क) इयं नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली । महात्मा बुद्धः तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः, शङ्कराचार्यः कबीरः, गोस्वामी तुलसीदास, अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारायन् । न केवलं दर्शने, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानां च कृते लोके विश्रुता । अत्रत्याः कौशेयशाटिकाः देशे-देशे सर्वत्र स्पृह्यन्ते ।

उत्तर- यह नगर विभिन्न धर्मों के संगम स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। महात्मा बुद्ध, तीर्थंकर पार्श्वनाथ, शंकराचार्य, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास और अन्य कई महान आत्माएँ यहाँ आकर अपने विचारों का प्रसार करतीं थीं। न केवल दर्शन, साहित्य और धर्म के क्षेत्र में, बल्कि कला के क्षेत्र में भी यह नगर अनेक प्रकार की कलाओं और शिल्पों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ की कौशेय शाटिकाएँ (कपास के वस्त्र) देश-विदेश में सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करती हैं।

संदर्भ- यह वर्णन बनारस (वाराणसी) का है, जो भारत का एक प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र है।

(ख) एषा कर्मवीराणां संस्कृतिः “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः” इति अस्याः उद्घोषः । पूर्व कर्म, तदनन्तरं फलम् इति अस्माकं संस्कृते नियमः । इदानीं यदा वयम् राष्ट्रस्य नवनिर्माणे संलग्नाः स्मः निरन्तरम् कर्मकरणम् अस्माकं मुख्यं कर्त्तव्यम् । निजस्य श्रमस्य फलं भोग्यं अन्यस्य श्रमस्य शोषणं सर्वथा वर्जनीयम् । यदि वयं विपरीतं आचरामः तदा न वयं सत्यं भारतीय-संस्कृतेः उपासकाः ।

उत्तर- यह अंश भारतीय संस्कृति में कर्म के महत्व को दर्शाता है। “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः” का अर्थ है कि जो व्यक्ति अपने कार्यों को करता है, वही जीवन के समस्त सुखों को प्राप्त करता है। भारतीय संस्कृति में यह विश्वास है कि हर कार्य का एक परिणाम होता है, और इसलिए कर्म के प्रति निष्ठा आवश्यक है। जब हम राष्ट्र के निर्माण में लगे होते हैं, तो हमारा मुख्य कर्तव्य निरंतर कर्म करना होता है। हमें अपने श्रम का फल स्वयं भोगना चाहिए, और किसी अन्य के श्रम का शोषण करना पूरी तरह से वर्ज्य है। यदि हम इस सिद्धांत के विपरीत आचरण करते हैं, तो हम भारतीय संस्कृति की वास्तविक उपासना नहीं कर रहे होते।

संदर्भ- यह विचार भारतीय संस्कृति और उसके कर्मकांडों में निहित हैं, जिसमें कर्म, परिणाम और दूसरों के प्रति सम्मान का महत्व बताया गया है।

वाराणस्यां प्राचीनकालादेव गेहे-गेहे विद्यायाः दिव्यं ज्योतिः द्योतते । अधुनाšपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानं च वर्द्धयति । अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः । न केवलं भारतीयाः अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाथ अत्र आगच्छन्ति, निःशुल्कं च विद्यां गृह्णन्ति ।

उत्तर- वाराणसी में प्राचीन काल से ही प्रत्येक घर में विद्याओं का दिव्य प्रकाश जलता रहा है। आज भी यहाँ संस्कृत वाक्य-धारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है, जो जनमानस के ज्ञान को निरंतर बढ़ाती है। यहाँ पर अनेक आचार्य और प्रसिद्ध विद्वान वैदिक साहित्य के अध्ययन और शिक्षण में निरत हैं। केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेशी भी गीर्वाण वाणी (संस्कृत) का अध्ययन करने यहाँ आते हैं और निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते हैं।

संदर्भ- यह वर्णन वाराणसी के सांस्कृतिक और शैक्षिक महत्व को दर्शाता है, विशेष रूप से संस्कृत और वैदिक विद्या के संदर्भ में, जो आज भी इस नगर में जीवित और प्रचलित हैं।

एकदा बहवः जनाः धूमयानम् (रेलगाड़ी) आरुह्य नगरं प्रति गच्छन्ति स्म। तेषु केचित् । ग्रामीणाः केचिच्च नागरिकाः आसन्। मौनं स्थितेषु एकः नागरिकः ग्रामीणीन् उपहसन् अकथयत् ‘ग्रामीणाः अद्यापि पूर्ववत् अशिक्षिताः अज्ञाश्च सन्ति। न तेषां विकासः अभवत् न च भवितुं शक्नोति। “तस्य तादृशं जल्पनं श्रुत्वा कोऽपि चतुरः ग्रामीणः अब्रवीत् ‘भद्र नागरिक ! भवान् एवं किञ्चित् ब्रवीतु, यतो हि भवान् शिक्षितः बहुज्ञश्च अस्ति।” इदम् आकर्त्य स नागरिकः सदर्प ग्रीवाम् उन्नमय्य अकथयत्-“कथयिष्यामि परं पूर्वं समयः विधातव्यः।

उत्तर- एक बार बहुत से लोग धूमयान (रेल गाड़ी) में चढ़कर नगर की ओर जा रहे थे। उनमें कुछ ग्रामीण थे और कुछ नागरिक। जब वे चुपचाप बैठे थे, तब एक नागरिक ने ग्रामीणों का उपहास करते हुए कहा, “आज भी ये ग्रामीण वैसे के वैसे अशिक्षित और अज्ञानी हैं। इनका कोई विकास नहीं हुआ, और न ही भविष्य में होने की संभावना है।”

उस नागरिक की बात सुनकर एक चतुर ग्रामीण ने उत्तर दिया, “भद्र नागरिक! आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, क्योंकि आप शिक्षित और ज्ञानी हैं।” यह सुनकर उस नागरिक ने गहरी नाराजगी में अपनी गर्दन उठाते हुए कहा, “मैं जो कह रहा हूँ, वह पहले नहीं बल्कि बाद में बताया जाएगा, जब समय उचित होगा।”

संदर्भ- यह कथा ग्रामीण और शहरी मानसिकता के बीच के भेद को उजागर करती है। इसमें एक नागरिक की अहंकारपूर्ण सोच और एक ग्रामीण की चतुराई को दर्शाया गया है। यह दिखाता है कि बाहरी आचार-व्यवहार और शिक्षा के बावजूद, ग्रामीणों में भी गहरी समझ और बुद्धिमत्ता हो सकती है।

 

 

सार्थः प्रवसतो मित्रं किंस्विन् मित्रं गृहे सतः। आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन् मित्रं मरिष्यतः।।

उत्तर- कविता का अनुवाद

“यात्रा करते समय क्या कोई मित्र सचमुच मित्र होता है?
जब घर में कोई मित्र उपस्थित हो, तो क्या उसे मित्र कहा जा सकता है?
और जब कोई व्यक्ति रोगग्रस्त हो, तो क्या वह मित्र कहलाता है?
क्या वही मित्र है जो किसी के मरणासन्न होने पर काम आये?”

संदर्भ- यह कविता मित्रता के वास्तविक अर्थ को समझाती है। लेखक यह प्रश्न करता है कि क्या वास्तव में किसी को मित्र कहा जा सकता है यदि वह सिर्फ यात्रा करते समय या जब व्यक्ति स्वस्थ होता है, तब ही साथ दे। असल मित्र वही होता है जो संकट, दर्द और मृत्यु के निकट भी हमारे साथ खड़ा रहे। यह कविता मित्रता के गहरे और सच्चे स्वरूप को उजागर करती है, जो सिर्फ अच्छे समय में नहीं, बल्कि कठिन परिस्थितियों में भी सहायक होती है।

ख) बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः । उभयत्र समो वीरः वीर भावो हि वीरता ।।

उत्तर- कविता का अनुवाद

“बन्धन हो या मरण, विजय हो या पराजय,
सभी स्थितियों में समान रूप से वीर होता है।
वीरता का अर्थ है वीर भाव, जो हर स्थिति में उसे धैर्य और साहस के साथ निभाता है।”

संदर्भ- यह शेर वीरता की परिभाषा को स्पष्ट करता है। इसका संदेश है कि वीर व्यक्ति न केवल विजय के समय, बल्कि बंधन, मरण, और पराजय के समय भी अपनी साहसिकता और धैर्य को बनाए रखता है। वीरता केवल जीत में नहीं, बल्कि कठिन परिस्थितियों का सामना करने की मानसिक स्थिति में भी है। वीरता का मूल तत्व व्यक्ति के आत्मविश्वास, साहस और संयम में निहित होता है, जो उसे हर स्थिति में स्थिर और मजबूत बनाए रखता है।


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