पृथ्वीराज रासो की प्रमाणिकता प्रकाश डालिए Throw light the authenticity of Prithviraj Raso


पृथ्वीराज रासो की प्रमाणिकता प्रकाश डालिए

शुरुवात से अंत तक जरूर पढ़ें।


भूमिका
भारतीय साहित्य के मध्यकालीन युग में ‘पृथ्वीराज रासो’ एक अत्यंत प्रसिद्ध और चर्चित काव्यग्रंथ है, जिसे हिंदी के आदिकाव्य के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। इस काव्य का रचयिता कवि चंदबरदाई माने जाते हैं, जो पृथ्वीराज चौहान के समकालीन और उनके राजकवि थे। यह रचना पृथ्वीराज चौहान के जीवन, वीरता, युद्धों और अंततः मोहम्मद गोरी से उनके संघर्ष का वर्णन करती है। यद्यपि यह काव्य भारतीय साहित्य और इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, फिर भी इसकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता पर विद्वानों के बीच गहन विवाद है। इस उत्तर में हम ‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रमाणिकता के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।


1. ‘पृथ्वीराज रासो’ का स्वरूप और संरचना

‘पृथ्वीराज रासो’ एक वीर रस प्रधान महाकाव्य है, जिसकी रचना ब्रजभाषा में की गई है। मूलरूप में यह एक लघु ग्रंथ था, परंतु कालांतर में इसमें अनेक अतिरिक्त घटनाएँ, प्रसंग और काव्यांश जोड़े गए जिससे यह एक विशाल ग्रंथ बन गया।

संरचना की दृष्टि से यह रचना तीन भागों में विभाजित है:

  1. प्रारंभिक भाग – पृथ्वीराज की वंशावली, बाल्यकाल, शिक्षा आदि का वर्णन।
  2. मध्य भाग – युद्धों, विजय अभियानों और संयोगिता प्रेम-कथा का वर्णन।
  3. अंतिम भाग – पृथ्वीराज की पराजय, बंदी बनना और चंदबरदाई के साथ मिलकर मोहम्मद गोरी का वध करना। पृथ्वीराज रासो की प्रमाणिकता प्रकाश डालिए Throw light the authenticity of Prithviraj Raso

2. ऐतिहासिक स्रोतों से तुलना

जब हम ‘पृथ्वीराज रासो’ को अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से तुलना करते हैं, तो कई विसंगतियाँ स्पष्ट रूप से सामने आती हैं।

(क) मुस्लिम इतिहासकारों के विवरण

मोहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान के युद्धों के बारे में विभिन्न मुस्लिम इतिहासकारों – जैसे इब्न अल-असीर, हसन निजामी, और मिन्हाज-उस-सिराज – ने विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार, तराइन का पहला युद्ध (1191) पृथ्वीराज ने जीता था, परंतु दूसरे युद्ध (1192) में वह पराजित हुआ और उसे बंदी बनाकर गजनी ले जाया गया, जहाँ बाद में उसकी मृत्यु हो गई।

परंतु ‘पृथ्वीराज रासो’ के अनुसार पृथ्वीराज ने गजनी में रहते हुए चंदबरदाई की मदद से गोरी को मार दिया। यह विवरण इतिहासकारों के अभिलेखों से मेल नहीं खाता।

(ख) अभिलेखीय साक्ष्य

भारत के विभिन्न हिस्सों से प्राप्त शिलालेखों, ताम्रपत्रों और अभिलेखों में पृथ्वीराज चौहान का उल्लेख मिलता है, परंतु उनमें ‘पृथ्वीराज रासो’ में वर्णित घटनाओं का कोई प्रमाण नहीं है। उदाहरण के लिए, अजन्ता, बीजापुर, अजमेर आदि के अभिलेख पृथ्वीराज के प्रशासन और युद्धों की पुष्टि करते हैं, परंतु संयोगिता की कथा या गोरी की हत्या जैसे प्रसंगों का उल्लेख कहीं नहीं मिलता।

(ग) समकालीन साहित्य और ग्रंथ

मध्यकालीन भारत में लिखे गए अन्य ग्रंथों जैसे ‘पृथ्वीराज विजय’ (संस्कृत में रचित), जो अधिक ऐतिहासिक मानी जाती है, उसमें भी कई घटनाएँ ‘रासो’ से भिन्न हैं। उदाहरणतः ‘पृथ्वीराज विजय’ में पृथ्वीराज को एक महान शासक बताया गया है, पर उसमें संयोगिता या गोरी की हत्या का वर्णन नहीं है।


3. रचना की कालगत समस्याएँ और विस्तार

‘पृथ्वीराज रासो’ की रचना को लेकर विद्वानों में मतभेद है कि इसकी रचना कब हुई। यद्यपि चंदबरदाई को इसका रचयिता माना जाता है, परंतु विद्वानों का मानना है कि मूल ग्रंथ छोटा था, जिसे बाद में मुगल काल और उसके बाद के कवियों ने विस्तार दिया।

मुख्य बिंदु:

  • प्रारंभिक ‘रासो’ संभवतः 13वीं या 14वीं शताब्दी में रचा गया।
  • परंतु वर्तमान में जो ‘पृथ्वीराज रासो’ उपलब्ध है, वह 16वीं–17वीं शताब्दी की भाषाशैली, छंदों और रीतिकालीन अलंकारिक शैली को प्रदर्शित करता है।
  • इसमें संयोगिता-स्वयंवर, दिल्ली-दलन, और गोरी-वध जैसी रोमांचक परंतु अप्रमाणित घटनाओं को जोड़ा गया।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ‘रासो’ एक जीवित ग्रंथ रहा है, जिसे अलग-अलग कालों में पुनर्लिखित और संपादित किया गया।पृथ्वीराज रासो की प्रमाणिकता प्रकाश डालिए Throw light the authenticity of Prithviraj Raso


4. भाषिक और काव्यात्मक विश्लेषण

‘पृथ्वीराज रासो’ की भाषा ब्रजभाषा है, जो 12वीं शताब्दी की प्रचलित भाषा नहीं थी। उस समय अपभ्रंश या प्रारंभिक हिंदी अधिक प्रचलित थी। इसके अलावा इसमें प्रयुक्त छंद जैसे दोहा, चौपाई, छप्पय आदि भी रीतिकालीन काव्य की विशेषता हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इसका वर्तमान स्वरूप बाद में विकसित हुआ।

इसके अतिरिक्त:

  • काव्य में प्रयुक्त अलंकार, शृंगारिक वर्णन, वीर-रस की अतिशयोक्ति ‘इतिहास’ की बजाय ‘काव्य कल्पना’ अधिक प्रतीत होती है।
  • संयोगिता के स्वयंवर की घटना में पृथ्वीराज द्वारा उसे बलात् हर ले जाना और उनका प्रेम संबंध – ये घटनाएँ ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमाणित नहीं हैं और काव्य कल्पना की उपज हैं।

5. प्रमाणिकता पर विद्वानों के मत

(क) डॉ. रामकुमार वर्मा

उनके अनुसार ‘पृथ्वीराज रासो’ एक ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक काव्यात्मक आख्यान है। यह इतिहास नहीं, अपितु इतिहास से प्रेरित ‘काव्य-इतिहास’ है।

(ख) हजारीप्रसाद द्विवेदी

वे मानते हैं कि ‘रासो’ की घटनाएँ लोकश्रुतियों और जनकथाओं पर आधारित हैं, और इसे ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए।

(ग) गोविंदराय शर्मा

उन्होंने ‘पृथ्वीराज रासो’ का तुलनात्मक अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि इसका अधिकांश भाग बाद में जोड़ा गया है और मूल चंदबरदाई की रचना अत्यल्प है।

(घ) डॉ. दशरथ ओझा

उन्होंने कहा कि चंदबरदाई का वास्तविक ग्रंथ केवल कुछ सौ श्लोकों का था, जिसे कालांतर में विस्तारित कर दिया गया। पृथ्वीराज रासो की प्रमाणिकता प्रकाश डालिए Throw light the authenticity of Prithviraj Raso


6. लोकश्रुति, मिथक और नायक पूजा की भूमिका

‘पृथ्वीराज रासो’ भारतीय समाज में वीरता, राष्ट्रभक्ति और स्वतंत्रता के प्रतीक रूप में स्थापित हुआ। इसकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि इसने पृथ्वीराज चौहान को एक अमर वीर योद्धा के रूप में चित्रित किया – जो मोहम्मद गोरी जैसे विदेशी आक्रांता को परास्त कर वीरगति को प्राप्त हुआ। यह काव्य भारतीय समाज में नायक पूजा, लोकगाथा और भावनात्मक इतिहास का हिस्सा बन गया, भले ही इसकी घटनाएँ ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित न हों।


7. निष्कर्ष: ‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रमाणिकता का समुचित मूल्यांकन

‘पृथ्वीराज रासो’ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पूरी तरह प्रमाणिक ग्रंथ नहीं माना जा सकता। इसके अधिकांश घटनाएँ अतिरंजित, काल्पनिक और लोककथाओं से प्रेरित प्रतीत होती हैं। यद्यपि इसका मूल रचनाकार चंदबरदाई हो सकता है, परंतु वर्तमान में उपलब्ध ‘रासो’ अत्यधिक परिवर्तित, संपादित और विस्तार किया गया ग्रंथ है।

फिर भी इसकी ऐतिहासिक भूमिका को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि:

  • यह हमें मध्यकालीन समाज की वीरता, सांस्कृतिक मूल्यों, काव्य परंपराओं और लोकमानस की झलक देता है।
  • यह हिंदी साहित्य के प्रारंभिक विकास में मील का पत्थर है।
  • यह एक प्रकार का ‘राष्ट्रीय गौरव गाथा’ बन गया, जिसने जनमानस में वीरता और स्वाभिमान की भावना को जाग्रत किया। पृथ्वीराज रासो की प्रमाणिकता प्रकाश डालिए Throw light the authenticity of Prithviraj Raso

उपसंहार

‘पृथ्वीराज रासो

’ को ऐतिहासिक ग्रंथ के बजाय इतिहास से प्रेरित एक काव्यात्मक आख्यान के रूप में देखना अधिक उचित होगा। इसकी घटनाओं को ऐतिहासिक तथ्य मानकर इतिहास लिखना उचित नहीं होगा, परंतु इसे साहित्यिक दृष्टि से, लोकमानस की अभिव्यक्ति के रूप में, और वीर काव्य परंपरा के प्रतिनिधि ग्रंथ के रूप में अवश्य स्वीकार किया जा सकता है। इसकी लोकप्रियता और प्रभाव से यह स्पष्ट होता है कि यह केवल एक काव्य नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना का अंग बन चुका है।


studyofhindi.com

Leave a Comment